कहती है भगवत गीता
कहती है भगवत गीता, निर्गुणी बनो
परमात्मा का वो रूप बनो
जहां तमस तुम्हें गुमराह न कर पाए
जहां रजस तुम पर हावी न हो पाए
जहां सत्य के संग तुम चलो।
पर महज इंसान ही तो है हम
प्रारब्ध, परिवार, परवरिश और विचार का परिणाम ही तो है
हम।।
गुण भी होगा और अवगुण भी होगा,
इतना आसान नहीं इन सांसों का सफर होगा,
हैं फूल, तो शूल भी होंगे,
सत्त्व भी होगा और तमस भी होगा,
रजस के भी रूप हजार,
विरोध
हो..तो विचारों का,
संग्राम
हो..तो संस्कारों का।
लालच
हो..तो केवल दुआओं का,
अहंकार
हो..तो हो स्वधर्म का॥
ग्लानि
हो..तो अंतर्मन की,
मुक्ति
हो..तो बस माया से।
बंधन
हो..तो हो धर्म का,
स्वार्थ
हो..तो समाज का॥
बागी
बनो..पर सच्चाई के,
आदर्श
बनो..पर इंसानियत के।
जीवन का संग्राम हो सार्थक,
सपनों
का हर संघर्ष हो पावन॥
यज्ञ
हो नित दिन,
यही
गीता का सार है,
यही
धर्म का पंथ।
यही
है जीवन का व्रत,
यही
अमर अनंत॥